Friday 9 April, 2010

अभिज्ञात के रूप में कहानी का फिर एक तारा चमका है- संजीव


बाएं से अरुण माहेश्वरी, विजय बहादुर सिंह, अभिज्ञात, संजीव, अर्धेन्दु चक्रवर्ती और हितेन्द्र पटेल

अभिज्ञात के कहानी संग्रह 'तीसरी बीवी' का लोकार्पण

कोलकाताः अभिज्ञात के रूप में कहानी का फिर एक तारा चमका है। एक जीवंत कथाकार की पुस्तक 'तीसरी बीवी' के लोकार्पण में मैं खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं। वे उम्र में छोटे हैं, लेकिन उनके अनुभव की एक बड़ी दुर्जेय दुनिया है जो उनके डेग और डग को विरल और विशिष्ट बनाती है। यह कहना है प्रख्यात कथाकार और हंस के कार्यकारी संपादक संजीव का। भारतीय भाषा परिषद सभागार में 6 अप्रैल 2010 मंगलवार की शाम अभिज्ञात के कहानी संग्रह 'तीसरी बीवी' का लोकार्पण करते हुए उन्होंने यह बात कही।
संजीव ने कहा कि मैंने उनकी दो कहानियां हंस में छापी हैं। उनकी कहानियों के जो पारिवारिक दायरे हैं उनमें द्वंद्व के नये क्षेत्र, आस्था के नये बिन्दु हैं। उन्होंने समकालीन कथासंसार पर कटाक्ष करते हुए कहा कि वे धन्य हैं जो प्रयोग के लिए प्रयोग और कला के कला का सहारा लेते हैं। पुनरुत्थानवाद फिर आ गया है जिसके परचम लहराये जा रहे हैं। नये कथाकारों की फौज़ आयी है। भाषा के एक से एक सुन्दर प्रयोग हो रहे हैं। अगर अपनी आत्ममुग्धता को सम्भाल लें तो बहुत है। अभिज्ञात की राह उनसे अलग है। मेरे पास हंस में प्रकाशनार्थ रोज दस से बाहर कहानियां आती हैं। भूमंडलीकरण का प्रकोप मुझ पर भी पड़ा है और कनाडा से लेकर स्पेन तक से फ़ोन आते हैं कि मुझे बताइये मेरी कहानी क्यों नहीं छपेगी। मैं विनम्र निवेदन करता हूं कि साहित्य कूड़ेदान नहीं है। इसमें युयुत्सा व घृणा के लिए जगह नहीं है। मैं कहता हूं साहित्य की शर्त पर आओ। लोग पूछते हैं तो शर्त बतायें क्या शर्त है साहित्य की। मैं कहता हूं-एक ही शर्त है साहित्य की, वह है उदात्तता। वह नहीं है तो शर्त पूरी नहीं होती। अभिज्ञात ने धीमे अन्दाज में उधर कदम बढ़ाये हैं। धन्यवाद के पात्र हैं। क्रेज़ी फ़ैण्टेसी की दुनिया, मनुष्य और मत्स्यकन्या, देहदान जैसी कहानियां बिल्कुल निराले अन्दाज़ की कहानियां हैं। देहदान कहानी में लाश को टुकड़े-टुकड़े काटकर बेच दिया जाता है और बता दिया जाता है कि लाश को चूहे खा गये। संजीव ने कहा कि दलित, नारी, शोषण तक कहानी का दायरा सिमटा हुआ था। अभिज्ञात ने दायरे का विस्तार किया है। आस्मां और भी हैं। उनसे मुक्त नहीं हो सकते। पीछे मुड़ के मत देखिये। द्वंद्व, आस्था के नये दिगंत खोले हैं। नये अनछुए दिगंत खोले हैं। कहानी में बिम्ब कैसे बनते हैं और किस प्रकार के निर्वाह से वे अलंकरण नहीं रह जाते इसका निर्वाह बड़ी कला है। इससे भाषिक संरचनाएं दीर्घजीवी हो जाती हैं। अभिज्ञात जी ने विज्ञान को लेकर मिथ बनाया है। कैसे मिथ बनता है यह उनकी कहानी में देखने लायक है।
कार्यक्रम की शुरुआत हितेन्द्र पटेल के वक्तव्य से हुई। उन्होंने कहा तीसरी बीवी की कहानियों पर कहा कि वे कई बार असुरक्षित परिवेश में रह रहे लोगों की ज़िन्दगी से अपनी कहानियां एक संवेदनशील तरीके से उठाते हैं। 'उसके बारे में' कहानी ऐसी ही कहानी है। जिसमें दर्द के रिश्ते की शिनाख्त की गयी है। असुरक्षित होते लोगों की बेचैन कहानियां ऐसी हैं जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होनी चाहिए। जबकि 'क्रेजी फैंटेसी की दुनिया' इससे भिन्न एक क्लासिक फलक वाली है। इन कहानियों में वह तत्व है जिसे निर्मल वर्मा के शब्दों में 'मनुष्य से ऊपर उठने का साहस' कहा है।
जीवन सिंह ने कहा कि क्रैजी फैंटेसी की दुनिया में कहा गया है कि शासन बदलता है लेकिन तंत्र नहीं बदलता। यह वस्तुस्थिति की गहरी पड़ताल से उन्होंने जांचा परखा है। लेखक जिन स्थितियों में जी रहा है उससे लिखने की रसद कैसे प्राप्त करता है उसका उदाहरण कायाकल्प जैसी कहानियां हैं। अभिज्ञात की 'जश्न' जैसी कहानियों में एक विद्रोह है, जो थमना नहीं चाहता है, नजरुल की तरह-'आमी विद्रोही रणक्रांत'। अरुण माहेश्वरी ने कहा कि 'तीसरी बीवी' संग्रह की कहानियां पढ़कर राजकमल चौधरी की याद आती है। इन्हें पढ़कर एक गहरा व्यर्थताबोध, डिप्रेशन पैदा होता है। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ बंगला कवि अर्धेन्दु चक्रवर्ती ने की। कार्यक्रम का संचालन भारतीय भाषा परिषद के निदेशक डॉ.विजय बहादुर सिंह ने किया।

Friday 8 January, 2010

नरेश मेहता स्मृति सम्मान नंदकिशोर आचार्य को



भोपाल : प्रतिष्ठित नरेश मेहता सम्मान वर्ष 2009 के लिए वरिष्ठ लेखक और विचारक नंदकिशोर आचार्य को दिया जाएगा। वैचारिक और सांस्कृतिक लेखन के लिए मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा स्थापित इस सम्मान में प्रशस्ति पत्र और इक्यावन हजार रुपए की राशि प्रदान की जाती है। समिति के मंत्री संचालक कैलाशचंद्र पंत के मुताबिक, आचार्य को यह सम्मान उनके राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर गहन लेखन के लिए दिया जा रहा है।
निर्णायक समिति ने आधार रूप में आचार्य की पुस्तकों 'संस्कृति की सामाजिकी' और 'सभ्यता का विकल्प' का विशेष उल्लेख किया है। इससे पहले यह सम्मान डा. गोविंदचंद्र पांडे, यशदेव शल्य और मुकुंद लाठ को दिया जा चुका है। कवि और नाटककार आचार्य साहित्य-संस्कृति पर लेखन के अलावा शिक्षा और गांधी-विचार के अनुशीलन के लिए भी जाने जाते हैं। इन दिनों वे प्राकृत भारती अकादमी के लिए अहिंसा पर एक विश्वकोष तैयार करने में रत हैं।

Monday 24 August, 2009

साहित्य-कर्म मेरे जीने का तरीका है - नंद भारद्वाज


नन्द भारद्वाज बेटी कुंतल के साथ


हिंदी के शीर्ष साहित्यकार नन्द भारद्वाज को इस साल का बिहारी सम्मान दिया जा रहा है

पिछले चार दशक से मैं हिन्दी और राजस्थानी में अपने लेखन-कार्य से जुड़ा हूं, लेकिन आज भी हर नयी रचना एक शुरूआत लगती है और संतोष तो बिरले ही होता है। लेखन मेरे लिए शौक या हाबी का सबब कभी नहीं रहा, बल्कि यही मेरे जीने का तरीका है। लिखना मेरे लिए उतना ही सहज है, जितना सहज रूप से जीना। कई बार लोग मुझसे लेखन की प्रेरणा को लेकर सवाल करते हैं तो मैं अवाक् रह जाता हूं। अगर संवाद मेरी जरूरत है, तो इसमें और किसी प्रेरणा को कैसे देखूं? लेखन मेरे लिए हमेशा संवाद की तरह ही रहा है - अपने समय के साथ और खुद अपने साथ भी। परिवार और परिवेश में कुछ कारण अवश्य बन जाते होंगे, जिनसे किसी रचनात्मक कार्य की शुरूआत संभव होती हो। मैं गांव से आया हुआ व्यक्ति हूं, यह न कोई खूबी है और न कैफियत। वहां साहित्य या संस्कृति को लेकर ऊपरी तौर पर कोई स्वरूप या संकेत नहीं दिखाई देता। लेकिन ज्यों-ज्यों आंख खुलती गई और अपनी जड़ों को तलाश जारी रही तो पाया कि अद्भुत थी वह लोक-विरासत, जिसकी गोद में मैं पला-बढ़ा और अपना होश संभाला। मेरे बड़ों ने शायद यही अपेक्षा की थी कि मुझमें वही संस्कार और रुचियां विकसित हों, जो वे मुझ तक संजोकर लाए थे। अपनी ओर से यही प्रयत्न रहा कि मैं उन चीजों को जानूं-समझूं। मैंने कोशिश की। इस लोक-विरासत से मिली रामायण, महाभारत की आख्यान-कथाओं को उन्हीं की प्रेरणा से सुना-समझा और सत्य, न्याय और लोकधर्म के प्रति एक बुनियादी आस्था अपने भीतर अंकुरित होते हुए महसूस की। उन्हीं स्कूली दिनों में की शुरूआत मेरे एक प्रिय शिक्षक रहे - मास्टर लज्जाराम, जिन्होंने मेरे भीतर यह विश्वास पैदा किया कि जीवन में अगर कुछ सार्थक करना है तो अच्छी शिक्षा बेहद जरूरी है। मेरे इसी प्रारंभिक जीवन-अनुभव से जुड़ी कविता है, ‘हरी दूब का सपना’, जिसके केन्द्र में उन्हीं का आत्मीय व्यक्तित्व और बिखरते सपने संरक्षित हैं। साहित्य-कर्म को मैं जीवन के एक सहज कर्म की तरह ही लेता हूं - जैसे किसान खेती करता है, कारीगर कोई उपकरण बनाता है या एक शिक्षक शिक्षण का काम करता है। लिखना-पढ़ना मुझे उतना ही सहज और जरूरी काम लगता है, जितने जीवन के दूसरे काम। यह बात अनुभव से ही जानी है कि रचनाकर्म किसी जन्मजात प्रतिभा का मोहताज नही होता, वह सुरुचि और सतत अभ्यास से ही विकसित किया जाता है। लेखन एक दायित्वपूर्ण कर्म अवश्य है, लेकिन कोई अगर इसे विशिष्ट मानकर करता है और स्वयं भी विशिष्ट होने के भ्रम में जीता है, तो न उससे वह कर्म सधता है और न वैशिष्ट्य ही। अपने बहुविध रचनाकर्म में कविता को मैं अपने चित्त के बहुत करीब पाता हूं। यद्यपि अन्य विधाओं के साथ मेरा वैसा ही आत्मीय रिश्ता रहा है। दरअसल अनुभव की प्रकृति और अभिव्यक्ति का आवेग ही यह तय करता है कि मुझे अपनी बात किस साहित्य-रूप के माध्यम से कहनी है। किसी प्रासंगिक विषय पर वैचारिक विवेचन प्रस्तुत करना हो तो निश्चय ही आलोचना या निबंध ही उपयुक्त विधा होती है, अगर कोई जीवन-प्रसंग फिक्शन के बतौर बयान करना ज्यादा सहज और आवश्यक लगता है तो कहानी या उपन्यास के आकार में उसे ढालने का प्रयत्न करता हूं। इसी तरह नाटक, संवाद, संस्मरण आदि में भी मेरी दिलचस्पी रही है। लेकिन अभिव्यक्ति के इन रूपों में कविता की ऊर्जा का असर कभी कम नहीं हुआ। यों हर रचना अनुभव की पुनर्रचना का पर्याय मानी जाती है, लेकिन अपने तंई उस संवेदन को पूरी इन्टैसिटी और भाषिक आवेग के साथ व्यक्त करना मैं रचना की अपनी जरूरत मानता हूं। कविता में अक्सर चीजों के साथ हमारे रिश्ते बदल जाते हैं। यह बदला हुआ रिश्ता हमें उनके और करीब ले जाता है। वहां पेड़ सिर्फ पेड़ नहीं रह जाता और न पहाड़ कोई निर्जीव आकार। शब्द वही अर्थ नहीं देते, जो सामान्यतः उनसे लिया जाता है। अभिव्यक्ति लय में विलीन होती हुई कुछ तरल आकार ग्रहण करने लगती है और कम-से-कम शब्दों का सहारा लेते हुए गहराई तक उतरने का प्रयत्न करती है। यही प्रयत्न आज की कविता को पिछले समय की कविता से अलग करता है। यह काव्यानुभव जितना व्यंजित होकर असर पैदा करता है, उतना मुखर होकर नहीं। इसलिए अच्छी कविता के लिए यह जरूरी है कि वह विस्तार के प्रति सतर्क रहे, भाषा के अपव्यय से बचे और अभिव्यक्ति में वह तराश और कसावट आखिर तक बनी रहे। रचनात्मकता की इन्हीं खूबियों के कारण मैं कविता को साहित्यिक अभिव्यक्ति का एक बेहतर फाॅर्म मानता हूं। रचना के भीतर मूर्त होता जीवन-यथार्थ, उसमें अन्तर्निहित मानवीय सरोकार और उसके लक्षित पाठक-वर्ग से बनता रिश्ता ही यह तय कर पाता हूं कि कविता उसकी जीवन-प्रक्रिया में कितनी प्रासंगिक और प्रभावी रह गई है। यहां यह उल्लेख कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि इस सर्जनात्मक अभिव्यक्ति के लिए मेरा मन अपनी मातृभाषा राजस्थानी में अधिक रमता है। यद्यपि अभिव्यक्ति के स्तर पर हिन्दी और राजस्थानी दोनों मेरे लिए उतनी ही सहज और आत्मीय हैं और दोनों में समानान्तर रचनाकर्म जारी रखते हुए मुझे कभी कोई दुविधा नहीं होती। लेकिन जब भी सार्वजनिक रूप से मान-सम्मान का कोई अवसर आता है, अपनी भाषा के साथ बरते जाने वाले दोयम-भाव को लेकर मेरा मन उद्वेलित हो उठता है। मुझ जैसे सैकड़ों राजस्थानी लेखक और करोड़ों मूक लोग आजादी के बाद से अब तक इस भाषा की मान्यता के लिए प्रतीक्षारत हैं। मैं बिना किसी भावावेष के अपने मन की यह पीड़ा दोहराना चाहता हूं कि हमारा यह मान-सम्मान तब तक अधूरा है, जब तक इस भाषा को संवैधानिक मान्यता नहीं मिल जाती। जिस भाषा में सात सौ वर्षों की समृद्ध साहित्य-परम्परा मौजूद हो, कविता, कथा, उपन्यास, नाटक, आलोचना और गद्य की तमाम विधाओं में पर्याप्त सृजन उपलब्ध हो, हजारों हस्तलिखित पाण्डुलिपियां और प्रकाषित पुस्तकें शोध-संस्थानों और पुस्तकालयों में अंटी पड़ी हों, लोक-कथाओं, लोक-नाट्योें, लोकगीतों और मुहावरों-लोकोक्तियों का अकूत भंडार बिखरा पड़ा हो, जो आजादी से पहले राजपुताना की रियासतों की राजभाषा रही हो, षिक्षा, कारोबार और आम बोलचाल का आधार रही हो, ढाई लाख शब्दों की नौ जिल्दों में फैला जिसका विषाल शब्दकोष अजूबे की तरह सजा हो, जिसका अपना अलग व्याकरण मौजूद हो, उस करोड़ों लोगों की सजीव और समर्थ भाषा को उसका उचित स्थान न मिले, तो उस पीड़ा को वही जान सकता है, जिसे इस वास्तविकता का अहसास हो। पिछले चार दशकों में अपने साहित्य-कर्म के साथ मैं मीडिया में भी सक्रिय रहा हूं। इधर इलैक्ट्राॅनिक मीडिया के विस्तार को कुछ लोग कला-साहित्य के लिए एक खतरे की तरह देखने लगे हैं, जबकि देखना उसे एक सकारात्मक चुनौती की तरह ही चाहिये। इस व्यावसायिक मीडिया की अपनी प्राथमिकताएं हैं। अपनी साख और बौद्धिक वर्ग में घुसपैठ के लिए वह साहित्य या कला-रूपों का मनमाना इस्तेमाल बेशक कर लेता हो, लेकिन साहित्य और कला से उसका रिश्ता कतई विश्वसनीय नहीं बन पाया है। यहां तक कि लोक-प्रसारण का दावा रखने वाली माध्यम इकाइयां भी अपने प्रयत्न के बावजूद अपेक्षित सफलता नहीं अर्जित कर पाई हैं। व्यावसायिक मीडिया को हम जितनी आसानी से जनसंचार की संज्ञा से विभूषित करने लगते हैं, दरअसल वह उसके मूल मकसद के कहीं आस-पास भी नहीं होता। उस जन की भागीदारी वहां नगण्य है, जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। लोग अक्सर इस तथ्य को गौण कर जाते हैं कि लोक-भाषा जन-अभिव्यक्ति का आधार होती है। प्रत्येक जन-समुदाय अपने ऐतिहासिक विकासक्रम में जो भाषा विकसित करता है और वह उसके सर्जनात्मक विकास की सारी संभावनाएं खोलती है। उसकी उपेक्षा करके कोई माध्यम जनता के साथ सार्थक संवाद कायम नहीं कर सकता। उदारीकरण की प्रक्रिया में इधर बहुत से बाहरी दबाव अनायास ही बाजार में प्रवेश कर गये हैं। बहुत-सी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ऐसा माहौल बना दिया है, जैसे अब सारा मार्केट और सारे उपभोक्ता उन्हीं के इशारों पर चलेंगे, लेकिन सचाई इतनी सीधी और सरल नहीं है। यह व्यवसायीकरण भी जन-आकांक्षाओं की उपेक्षा करके कहीं अपना पांव नहीं टिका पाता। इन कंपनियों को जब अपना उत्पाद आम लोगों तक पहुंचाना होता है, तो वे हिन्दी या कोई भारतीय भाषा ही क्या, उन भाषाओं की सामान्य बोलियों तक जा पहुंचती हैं। यह एक अनिवार्य संघर्ष है, जिसके बीच लोक-भाषाओं को अपनी ऊर्जा बचाकर रखनी है। साहित्य का काम इन्हीं लोगों के मनोबल को बचाये रखना है। यहीं एक लोक-कल्याणकारी राज्य की सार्थक भूमिका का सवाल भी सामने आता है। लोकतंत्र में लोक और तंत्र एक-दूसरे के पूरक होकर ही जिन्दा रह सकते हैं, अन्यथा न लोक चैन से जी पाएगा और न तंत्र ही साबुत रह पाएगा। दरअसल भाषा, साहित्य और संवाद के यही वे उलझे सूत्र हैं, जिन्हें सुलझाकर ही शायद हम किसी नये सार्थक सृजन की कल्पना कर पाएं।

Thursday 25 June, 2009

आलोक श्रीवास्तव को दुष्यंत कुमार पुरस्कार



मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी ने इस बार अपना प्रतिष्ठित 'दुष्यंत कुमार पुरस्कार' युवा ग़ज़लकार आलोक श्रीवास्तव को देने की घोषणा की है. आलोक को यह पुरस्कार उनके बहुचर्चित ग़ज़ल संग्रह 'आमीन' के लिए दिया जाएगा. साल 2007 में राजकमल प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित इस संग्रह के लिए आलोक श्रीवास्तव को मिलने वाला यह तीसरा प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कार है. इससे पहले उन्हें राजस्थान के 'डॉ. भगवतीशरण चतुर्वेदी पुरस्कार' और प्रख्यात आलोचक डॉ. नामवर सिंह के हाथों मुंबई में प्रतिष्ठित 'हेमंत स्मृति कविता सम्मान' से नवाज़ा जा चुका है. हाल ही में ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह ने अपने नए एलबम 'इंतेहा' में आलोक की ग़ज़ल को अपनी आवाज़ दी है. प्रख्यात शास्त्रीय गायिका शुभा मुदगल भी अपने चर्चित एलबम 'कोशिश' में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्मों के साथ आलोक के गीतों को स्वर दे चुकी हैं. पेशे से टीवी पत्रकार आलोक, मूलत: विदिशा (म.प्र.) के हैं और इन दिनों दिल्ली में न्यूज़ चैनल 'आजतक' से जुड़े हैं।

कलम की बधाई

Saturday 21 March, 2009

उदयपुर में सत्यनारायण पटेल का कहानी पाठ



उदयपुर ।``कहां है आदमी, यहां तो सब कीड़े-मकोड़े है। इनकी औलादें भी ऐसी ही होंगी। कभी नहीं, कभी पनही नहीं पहनेंगे। जिनगीभर उबाणे पगे पटेलों की जी हुजूरी करेंगे।´´ गांवों में जातीय और आर्थिक शोषण के यथार्थ का जीवन्त चित्र प्रस्तुत करने वाली कहानी `पनही´ पढ़ते चर्चित युवा कथाकार सत्यनारायण पटेल ने अंत में कथा नायक के इस कथन से समाहार किया `अब मेरा मुंह वया देख रहे हो, जाओ टापरे मेंे जो कुछ हो-लाठी, हंसिया लेकर तैयार रहो, पटेलों के छोरे आते ही होंगे और हां, उबाणे पगे मत आजो कोई।´ पटेल की इस कहानी का अंत प्रबल जन प्रतिरोध की अभिव्यक्ति से हुआ है जो अब कैसी भी धौंस को बर्दाश्त नहीं करेगा। जनार्दनराय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय के जनपद विभाग द्वारा आयोजित इस कहानी पाठ के पश्चात हुई चर्चा में वरिष्ठ कवि नन्द चतुर्वेदी ने कहा कि `पनही´ एक शक्तिशाली कहानी है जो दबे हुए व्यक्ति को वाणी दे सकने वाली चेतना का उद्घाटन करती है। उन्होंने कहा कि इधर का कहानीकार मध्यम वर्ग की चालाकियों से भरा नजर आ रहा है। ऐसे में पटेल की कहानियॉ आश्वस्ति देने वाली हैं कि कई तरह के पटेलों से लड़ रहे लोगों के स्वर देने की सामथ्र्य अभी मौजूद है। नंद बाबू ने ग्लोबलाइजेशन के नये खतरोंं में स्थानीयता की रक्षा को बड़ी चुनौती बताया। वरिष्ठ उपन्यासकार राजेन्द्र मोहन भटनागर ने पटेेल को बधाई दी कि उन्होंने गांव को अपने रचनाकर्म की विषय वस्तु बनाया। उन्होंने कहा कि `पनही´ की सफलता इस बात में है कि यह श्रोताओं को शहर से निकालकर ठेठ गांव में ले जाती है। सुखाड़िया विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के प्रो.आशुतोष मोहन ने इसे छोटे कैनवास के बावजूद सघन कथा बताया जो अपने भीतर औपन्यासिक गुंजाइश रखती है। उन्होंने नायिका पीराक के चित्रण में आई ऐिन्द्रकता को विरल अनुभव बताते हुए कहानी में छिपे अनेक संकेतों की भी व्याख्या की। उर्दू कथाकार डॉ.सर्वतुिन्नसा खान ने कहा कि समकालीन कथा लेखन की एकरसता में जीवन के बहुविध रंगों की छटा गायब हो रही है ऐसे में गांव की कहानी आना खुशगवार है। खान ने कहानी की भाषा को देशज अनुभवों की समृद्ध उपज बताया। राजस्थान विद्यापीठ के सहआचार्य डॉ. मलय पानेरी ने कहा कि सामंतवाद का पहिया स्वत: जाम नहीं होगा अपितु उसके लिए संघर्ष करना होगा। डॉ. पानेरी ने कहानी को ग्रामीण निम्न वर्गीय जीवन का यथार्थ बताया। `बनास´ के संपादक डॉ. पल्लव ने देशज कथा रूप और शोषण की उद्ाम चेष्टा को सत्यनारायण पटेल की कहानियों की मुख्य विशेषता बताया। इससे पहले जनपद विभाग के निदेशक पुरुषोतम शर्मा ने अतिथियों का स्वागत किया और जनपद विभाग की गतिविधियों की जानकारी दी। वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी रामचन्द्र नन्दवाना ने दलित उत्पीड़न के प्रतिरोध के अपने अनुभव सुनाए। अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ समालोचक प्रो. नवल किशोर ने कहा कि भूमंडलीकरण की चकाचौंध में साहित्य में ही जगह बची है जो पूरन और पीराक जैसे दबे कुचले लोगों की बात कर सके। उन्होंने कहा कि अच्छे लेखक की पहचान यह है कि वह बदलते समय को पकडे़ और उसे सार्थक कला रूप दे। उन्होंने सत्यनारायण पटेल की कहानियों को इस चेतना से सम्पन्न बताते हुए कहा कि छोटी छोटी अिस्मताओं के नाम पर बंटने से ज्यादा जरूरी है कि हम बड़ी लड़ाई के लिए तैयार हों। आयोजन में लोककलाविद् डॉ. महेन्द्र भाणावत, डॉ. एल.आर. पटेल, विभा रिश्म, दुर्गेश नन्दवाना, भंवर सेठ, हिम्मत सेठ, अजुZन मंत्री, लक्ष्मीलाल देवड़ा, गणेश लाल बण्डेला सहित बड़ी संख्या में युवा पाठक उपस्थित थे। अंत में विद्यापीठ के सांस्कृतिक सचिव डॉ. लक्ष्मीनारायण नन्दवाना ने आभार व्यक्त किया।
गणेशलाल मीना
१५१ , टैगोर नगर, हिरण मगरी, से. 4, उदयपुर-313 002

Thursday 5 March, 2009

रंगों और शब्दों के बीच की आवाजाही का पड़ाव जयपुर


कलम के लिए दुष्यंत द्वारा
यह आलेख दो मार्च को पत्रिका के मध्य प्रदेश संस्करण में प्रकाशित हुआ था

प्रभु जोशी कथाकार बेहतर हैं या अच्छे पेंटर या उम्दा फिल्मकार, ये तय करना बड़ा मुश्किल है पर ये ज़रूर है कि शब्द रंग और दृश्य तीनों से उनका जुड़ाव उन्हें एक सम्पूर्ण कलाकार बनाता है। अट़्ठारहवीं शताब्दी के अंत और उन्नीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशक में कला की दुनिया में कुछ ऐसे लोग हुए और एक आन्दोलन खड़ा हुआ कि रंग और शब्द दोनों विधाओं में साथ काम किया, प्रभु भी वहीं खड़े नजऱ आते हैं अरौर वो बेशक वहाँ कद्दावर भी है और अलग भी...महज उपस्थित भर नहीं हैं।इन दिनों जयपुर के जवाहर कला केंद्र में इन्दौर के इस वर्सेटाईल आर्टिस्ट के लैण्ड स्केप अपना जादू बिखेर रहे हैं। वो अमूर्त और यथार्थ के बीेच एक संवाद सेतु बनाते हैं और ये उनके काम में लगातार दिखता है। जब हमने पूछा कि आप तो मूलत: कथाकार है तो बोले भाई शुरुआत तो चित्रों से हुई फिर शब्दों की दुनिया में रहा हूँ..और ये तो आवाजाही है जो चलती रहती है।प्रभु जोशी भारत के उन् विरले कलाकारों में हैं जिनका काम जब जिस विधा में आया सराहा गया है। यहाँ प्रदर्शित उनके चित्र लैण्ड स्केप के जरिये प्रकृति के रूपांतरण की कलात्मक यात्रा है जिस से गुजरना उनकी अंतर्दृष्टि से होते हुए अपने समय और समाज को देखना भी है। प्रभु कहते हैं कि पेंटिंग मेरे लिए तितलियों को पकडऩे जैसा है कभी एक बच्चे की गलती से मर जाती है , जोशी के लैण्ड स्केप पर उत्तराखंड मालवा और राजस्थान पर्यटन स्थलों छाप नज़र आती है.वे लैण्ड स्केप की प्लेसेज अन्पीपुल्ड के रूप में परिभाषित करते हैं, ऐसे स्थान जहां न तो मनुष्य गया है और ना ही कभी जा पायेगा, उनके लैण्ड स्केप गुजरात में आये भूकंप और भोपाल की झील के नजारे भी नज़र आते हैं, उन्होंने दो पेंटिंग्स भगवान् गणेश पर भी बनायी है ,उनके अनुसार जल रंगों में माफी नामे के लिए कोई स्थान नहीं है, ये तो अपमान सरीखा है। ये एक कलात्मक विरोधाभास है जिससे एक कलाकार को गुजरना ही पड़ता है जबकि तैलीय रंगों को वे शतरंज खेलने जैसा मानते हैं, आप एक कदम चलते हैं और घंटो या कई बार दिनों के लिए वहाँ थम से जाते हैं ।प्रभु का काम इसलिए भी अलग खडा नजऱ आता है कि वे लगातार अपने समय से आँख मिलाते हुए आगे बढ़ते हैं चाहे वो उस वक्त चित्र बना रहे हों कहानी लिख रहे हों या कि कोई फिल्म... कला में बाज़ार की उपस्थति को भी वे अलग नज़रिए से देखते हैं। उनका मानना है कि आवारा पूँजी ने कला में नकारात्मक प्रभाव पैदा किये हैं। यही वजह है कि आज जब दो कलाकार मिलते हैं तो क्राफ्ट या कंटेंट की बजाय इस चर्चा में ज्यादा मसरूफ रहते हैं कि फलां की पेंटिंग दस लाख में बिकी और फलां की बीस लाख या दस हज़ार में जबकि कला मूलत बिकने के लिए होती ही नहीं हैं , वो इस बात पर भी अपनी चिंता जताते हैं कि अमूर्तन की आंधी में रियलिस्टिक कहीं हाशिये पर आ गयी है। इन दिनों वे अपने तीन उपन्यासों जो उन्होंने बीस साल के लम्बे वक्फे में लिखे हैं, को अंतिम रूप दे रहे हैं..तो लगता है कि रंगों की दुनिया में उतरकर ये कथाकार खोया नहीं था बस एक अल्प विराम लिया था..ये भी एक बार फिर स्पष्ट होता है कि जब ऐसा लगता है सृजन की दुनिया के लोग कुछ नहीं कर रहे हैं तो मानना चाहिये कि वे चुपचाप किसी बड़े या अलग से काम को अंजाम दे रहे होते हैं अपने प्रशंसकों पाठकों या दर्शकों को चौंकाने के लिए।

Tuesday 3 February, 2009

कलम की सहभागिता में जयपुर फ़िल्म फेस्टिवल
















पहला जयपुर इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल
31 जनवरी और एक फरवरी 2009
शिरकत-
मुंबई से जगमोहन मूंधडा,सुभाष कपूर और सुदिप्तो सेन
दिल्ली से दीपक रोय,राकेश अन्दानिया और बीजू मोहन
पंडित विश्वमोहन भट्ट, डॉ हरिराम आचार्य, दीपक पुरोहित, दान सिंह के साथ सारा जयपुर

ख़ास फिल्में -रामचंद पाकिस्तानी, (निर्देशक महरीन जब्बार),

बवंडर (निर्देशक जगमोहन मुंदडा),

लिटिल टेरेरिस्ट ( निर्देशक अश्विन कुमार) ,

अखनूर (निर्देशक सुदिप्तो सेन )


अवार्डस -

नॅशनल इंटर नेशनल

बेस्ट शॉर्ट फ़िल्म- कर्नामोचम( निर्देशक मुरली मनोहर, चेन्नई )

बेस्ट डॉक्युमेंट्री - मुख्तार माई ( निर्देशक बीना सरवर, कराची पाकिस्तान)

जूरी अवार्ड नार्मीन (निर्देशक दीप्ती गोगना, मुंबई)और शेडो चाईल्ड( निर्देशक हेंस हेगे, जर्मनी)


राजस्थान विशेष -

बेस्ट फ़िल्म -ड्राई ( निर्देशक राकेश गोगना )

स्पेशल जूरी -टेक्सचर ऑफ़ अवर सौल ( निर्देशक दीपक गेरा )


क्रिटिक अवार्ड -

लिटिल टेरेरिस्ट ( निर्देशक अश्विन कुमार )और टेक्सचर ऑफ़ अवर सौल ( निर्देशक दीपक गेरा )